अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को एक ही पहल सबसे खास मानसिक सोच बदलो और अधिकारों का अवसर दो.

लोनी -अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को प्रतिवर्ष मनाया जाता है। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान प्रशंसा और प्यार प्रकट करते हुए इस दिन को महिलाओं के आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में उत्सव के तौर पर मनाया जाता है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च 1914 को आरंभ हुआ महिला दिवस महिलाओं को मताधिकार दिलाने के उपलक्ष्य में प्रथम बार मनाया गया था। महिलाओं को अभी भी वर्तमान समाज में भेदभाव के नजरिए से देखा जाता है। महिलाओं को पूर्ण नागरिक अधिकार मिल सके ।ताकि वह अपने किसी अधिकार से वंचित न रह जाएं ।हर औरत को दृढ़ एवं अटूट इरादे के साथ लड़ना चाहिए इस लड़ाई में किसी भी प्रकार के ठहराव या विश्राम की अनुमति नहीं है ।कई क्षेत्रों में यह दिवस अन्य दिवस जैसे मजदूर दिवस आदि की तरह मात्र एक दिवस अवसर बनकर रह गया ।बल्कि
इस दिवस का मुख्य उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ हिंसा से मुक्त विश्व, महिला और संघर्ष प्रबंधन, लिंग समानता और सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य, निर्णय लेने का अधिकार महिलाएंआत्मनिर्भर बने, महिला सशक्तिकरण आदि। इस दिवस पर महिलाओ और बेटियों के सम्मान में पुरुष अपने जीवन में उपस्थित महिलाओं जैसे दोस्त माताओं ,पत्नी,बेटियों ,सहपाठनीआदि ।को फूल या कुछ उपहार उनका उत्साह वर्धन बढ़ाते हुए हौसलाअफजाई व  उनके काम की प्रशंसा करें ।हर साल 8 मार्च को विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की सफलता का जश्न मनाया जाता है इस दिन का मुख्य फोकस महिलाओं को प्रोत्साहित करना और उनकी सराहना करना है। महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए और अधिक प्रभावी कार्य शुरू करने का भी है।

उप जिला अधिकारी लोनी सुभंगी शुक्ला ने बताया की अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च के दिन को मूल रूप से हैप्पी वूमेंस डे भी कहा जाता है। यह एक समाजवादी राजनीतिक घटना के रूप में शुरू हुआ ।और अंततः विभिन्न देशों की संस्कृतियों में मिश्रित हो गया महिलाओं के प्रति सम्मान और प्रशंसा व्यक्त करने का अवसर बन गया।महिला का ही रूप है दुर्गा इतनी शक्तिमान की भगवान राम ने भी लंका पर आक्रमण के समय दुर्गा की आराधना की। फिर भी आधुनिक युग में महिलाओं की दशा बहुत ही दयनीय है। मेरा मानना है ।महिलाओं के लिए अभी और काम करना बाकी है महिलाओं को अपने अधिकारों की लड़ाई किसी से नहीं करनी बस स्वयं की शक्ति को पहचानना है। और आगे बढ़ना है सभी महिलाएं स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बने। आज के दौर में अबला नहीं सबला होना अनिवार्य है। वैसे तो महिलाओं के विकास को लेकर हमारी सरकार बहुत सारी योजनाएं चला रही है ।लेकिन पृष्ठभूमि पर  और शेष काम  अभी भी बाकी है।


घड़ी कटैया कम अपोजिट विद्यालय की शिक्षिका रूबी शर्मा ने अपने विचार रखते हुए बताया कि बेटियों को बोझ ना समझे उन्हें पढ़ने लिखने दे वह किसी का अधिकार नहीं छीन  रही है। वह तो अपने हिस्से के अधिकारों से वंचित रह जाती है। क्योंकि बेटी के जन्म के साथ एक मानसिकता और जन्म लेती है ।कि अब तो बेटी का विवाह करना है कन्यादान करना है इसके लिए पैसे जोड़ने हैं और माता पिता अधिकांश से उसकी शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान न देकर विवाह संबंधी जिम्मेदारी में बरसो बरसो जूझते रहते हैं। अंत तक परिणाम यह निकलता है की बेटी की शादी करने के बावजूद बहुत सी बेटियों के जीवन में ना तो अधिकार होते हैं और ना ही कोई सुख शांति शादी के रिश्ते टूट जाते हैं कभी-कभी तो दो दो बच्चों की मां को भी संघर्ष करना पड़ता है। दहेज की खातिर वर्षों की दबी पीड़ा के चलते मामला कोर्ट कचहरी ओं में पहुंच जाता है। जिसके चलते  बेटियों के हाथ सिर्फ निराशा और दुख कष्ट लगता है। सभी पर यह बात लागू नहीं होती। लेकिन अधिकांश रिश्ते सफल भी नहीं हो पाते ऐसे ही और भी अन्य कई कारण हैं जिनके चलते  बेटियों को लड़कों से कम आंका जाता है शैक्षिक योग्यता   ना के बराबर  हो पाती है। इसलिए बेटियों को आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा पहले दे ।और उन्हें आत्मनिर्भर बनाएं भेदभाव ना करें क्योंकि बेटी के पढ़ने से दो परिवारों का भला होता है। जबकि बेटा एक ही परिवार का चिराग होता है।



मंजू  M.A  B.ED की छात्रा- मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से हूं और मैंने अपने परिवार और माता-पिता के सहयोग से अच्छी शिक्षा प्राप्त की है लेकिन मुझे नौकरी प्राप्त करने में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है लेकिन मैं पुरुषों के समान नौकरी करूं ।समाज का हिस्सा बनूं इससे सामाजिक लोगों को बहुत परेशानियां हैं ।अच्छी शिक्षा पाने के बाद भी मैं घर पर ही बैठी हूं ।मुझे पुरुषों के समान समानता प्राप्त नहीं है। मेरे घर परिवार के बेटे तो देश विदेश में नौकरी कर रहे हैं लेकिन अगर मेरी बात की जाए तो शादी की चर्चा तो होती रहती है लेकिन मेरी साक्षरता और मेरी  आत्म निर्भरता के बारे में तो मां भी बात करने से कतराती हैं। महिला दिवस  तभी पूर्ण सार्थक होगा। जब  परिवार समाज  की मानसिक विचारधारा लड़का लड़की को लेकर समान होगी ।

लोनी नगर पालिका अध्यक्ष रंजीता धामा का कहना है- वैसे  आज के दौर में लगभग सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने खूब नाम भी कमाया आज महिलाएं परिवार की जिम्मेदारी से लेकर राजनीति , प्रशासनिक, अधिकारी ,पायलट ,इंजीनियर स्पेस साइंटिस्ट , खेल जगत मीडिया प्रोफेशन सभी क्षेत्रों में महिलाओं की खूब भरमार है। और महिलाएं खुद को साबित भी कर पा रही हैं।

महिला दिवस  महोत्सव के बावजूद  भी हमारे देश में कुछ महिलाएं धार्मिक रीति रिवाज और  कुरीतियों का शिकार भी हो रही है। बहुत सी  महिलाओं को परिवार की संकीर्ण मानसिकता  कि बेटा ही हमारे वंश का नाम चला सकता है। कन्या भ्रूण हत्या के लिए बाध्य किया जाता है और परिणाम स्वरूप आज हमारे देश में बेटियों का प्रतिशत बेटों की अपेक्षा  लगभग 23 प्रतिशत तक कम हो चुका है। जन्म से ही अधिकार बराबर नहीं  इस बर्बर मानसिकता का कब जड़ से उन्मूलन होगा। शायद तब जाकर कहीं महिला दिवस सफल हो पाएगा।

अर्चना घरेलू महिला- सुबह उठते ही किचन में जाना और पूरे परिवार की सेहत का ख्याल  रखना। भरण पोषण से लेकर घर परिवार  के प्रत्येक सदस्य के साथ व पास पड़ोसियों से सकारात्मक व्यवहार की जिम्मेदारी महंगाई दर कितनी भी बढ़ जाए खर्चा सीमित दायरे में ही पूरा करना। बच्चों को खुश रखना पति को खुश रखना रिश्तेदारों की खातिरदारी में कोई कमी ना रह जाना। फिर भी जब कोई सामाजिक कार्यक्रम हो और आर्थिक लेन-देन का मामला हो तो घर के सारे फैसले पति या घर के अन्य मुखिया के द्वारा किए जाते हैं। हमारे जैसे परिवारों में घरेलू महिला तो घरेलू वर्कर समझा जाता है ।कोई आत्म सम्मान नहीं मिलताहै। इस असमानता का कब तक सामना करें।

कंपनी में काम करने वाली महिला वर्कर अन्नू का कहना है मैं घर का काम भी करती हूं और कंपनी में भी काम करने आती हूं और पुरुषों के बराबर काम करती हूं फिर भी मेरा वेतन पुरुषों से  कम है। क्या यह भेदभाव नहीं है एक ही काम करने पर तनखा का बराबर ना होना।

कक्षा नौ की छात्रा मधु ने बताया कि मेरे परिवार में वैसे तो मेरे साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। लेकिन मुझे कहीं भी घूमने फिरने की आजादी नहीं है यहां तक कि मार्केट सब्जी लेने भी नहीं जा सकती कोचिंग क्लास भी भेजने के बाद मम्मी को डर सताता रहता है। शायद हमारे देश में बेटियां आज भी सुरक्षित नहीं है। हमारे समाज में घूम रहे भेड़ियों को पहचानना बहुत ही मुश्किल है। 

 
नीट की छात्रा  शीतल यादव ने बताया कि वह MBA करके डॉक्टर बनना चाहती  है लेकिन सामाजिक आपदाओं के कारण परिवार के लोग उन्हें हॉस्टल भेजने से कतराते हैं। जबकि उनके भाई जो कि पहले से तैयारी कर रहे हैं वह कई वर्षों से बाहर हैं लेकिन लिंग भेदभाव और समाज की समस्याओं के कारण मेरे घरवाले मुझे हॉस्टल नहीं भेज पाने में समर्थ हैं कैसे पढ़े बेटियां और कैसे आगे बढ़े बेटियां।

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